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षडावश्यकाधिकार ७। १९७ आवासयणिजुत्ती वोच्छामि जधाकमं समासेण । । आयरिपरंपराए जहागदा आणुपुव्वीए ॥५०३ ॥ आवश्यकनियुक्तिं वक्ष्ये यथाक्रमं समासेन । आचार्यपरंपरया यथागतानुपूया ॥ ५०३ ॥
अर्थ-आवश्यकनियुक्तिको परिपाटीके क्रमसे आचार्योंकी परंपरासे आगमकी परिपाटीके अनुसार संक्षेपसे कहता हूं।५०३॥ रागद्दोसकसाये य इंदियाणि य पंच य । परीसहे उवसग्गे णासयंतो णमोरिहा ॥ ५०४ ॥
रागद्वेषकषायांश्च इंद्रियाणि च पंच च। परीषहान् उपसर्गान् नाशयद्भ्यो नमः अर्हयः ॥५०४॥
अर्थ-स्नेह अप्रीति क्रोधादि कषाय नेत्रादि पांच इंद्रिय क्षुधा आदि बाईस परीषह देवादिकृत संक्लेश-इन सबको नाश करनेवाले अरहंत देवोंको मेरा नमस्कार हो ॥ ५०४ ॥ __ आगे अरहंत आदिका शब्दार्थ कहते हैंअरिहंति णमोकारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चंदे ॥ ५०५ ॥
अर्हति नमस्कारं अर्गा पूजायाः सुरोचमा लोके। .. रजोहंतारः अरिहंतारश्च अहंतास्तेन उच्यते ॥ ५०५॥
अर्थ-जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजाके योग्य हैं लोकमें देवोंमें उत्तम हैं, और अरिके अर्थात् मोहकर्म अंतरायकर्म इन दोनों के हननेवाले हैं तथा रजके अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण इन दोनों के नाश करनेवाले हैं इसलिये अरिका आदि अक्षर अ और रजका आदि अक्षर र इन दोनोंको मिलाके अर हुआ उनके नाशक हैं इसलिये अर्हत हैं ॥ ५०५ ॥