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मूलाचार
अरहंतणमोकारं भावेण य जो करेदि पयद्मदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन ॥ ५०६ ॥ अर्हनमस्कारं भावेन च यः करोति प्रयतमतिः । स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति अचिरेण कालेन || ५०६ ॥ अर्थ — ऐसे अरहंतोंको जो सावधान होकर भावशुद्धिसे नमस्कार करता है वह थोड़े ही समय में सब दुःखोंसे छूट जाता है ॥ ५०६ ॥
दीहकालमयं जंतू उसिदो अट्ठकम्महि ।
सिदे धत्ते धित्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ ॥ ५०७ ॥ दीर्घकालमयं जंतुः उषितः अष्टकर्मसु ।
सिते ध्वस्ते निधत्ते च सिद्धत्वमुपगच्छति ॥ ५०७ ॥
अर्थ — यह जीव अनादिकालसे आठकर्मोंमें वस रहा है परंतु पर प्रकृतिरूप संक्रमण उदय उदीरणा उत्कर्षण अपकर्षण रहित कर्मबंधके नाश करनेपर सम्यग्ज्ञानादि गुणोंका आचरण करता हुआ सिद्धपनेको प्राप्त होता है ॥ ५०७ ॥ आवेसणी सरीरे इंदियभंडो मणो व आगरिओ । धमिदव्व जीवलोहे वावीसपरीसहग्गीहिं ॥ ५०८ ॥
आवेशनी शरीरं इंद्रियभांडानि मनो वा आकरी । धमातव्यं जीवलोहं द्वाविंशतिपरीषहाग्निभिः ॥ ५०८ ॥
अर्थ- चूल्हेरूप शरीर है, इंद्रियरूपी संडासी अहरण आदि उपकरण हैं, मन है वह केवल ज्ञानरूप ज्ञायक हैं, उपाध्याय लुहार है, जीव है वह सुवर्ण धातु है वह बाईस परीषहरूपी