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मूलाचारश्रद्धा आदि भाव, शरीरका बल, खयं सामर्थ्य,-इन सबको जानकर जैसी जिनमतमें उपदेश कीगई है वैसी एषणा समितिका पालन करे । जो उल्टा करे तो वात पित्त कफकी उत्पत्ति हो सकती है ॥ ४९० ॥
आगे भोजनविभाग व योग्यकाल दिखलाते हैं;अद्धमसणस्स सविंजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । वाऊ संचरणहूं चउत्थमवसेसये भिक्खू ॥ ४९१ ॥
अर्ध अशनेन सव्यंजनेन उदरस्य तृतीयं उदकेन । वायोः संचारणार्थ चतुर्थमवशेषयेत् भिक्षुः ॥४९१॥
अर्थ-साधु उदरके चार भागोंमेंसे दो भाग तो व्यंजन सहित भोजनसे भरे, तीसरा भाग जलसे पूर्ण करे और चौथा भाग पवनके विचरनेके लिये खाली रखे ॥ ४९१ ॥ सूरुयत्थमणादो णालीतियवजिदे असणकाले । तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्ममुक्कस्से ॥ ४९२ ॥
सूर्योदयास्तमनयोर्नाडीत्रिकवर्जितयोः अशनकालः । त्रिकद्विकैकमुहूर्ताः जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः ॥ ४९२ ॥
अर्थ-सूर्यके उदयसे तीन घड़ी वादसे लेकर सूर्यके अस्त होनेके तीन घडी पहले तक वीचका भोजन करनेका समय है । इसकालमें भोजन करनेमें तीन मुहूर्तकाल लगना वह जघन्य आचरण है, दो मुहूर्तकाल लगना वह मध्यम आचरण है, एकमुहूर्त लगना वह उत्कृष्ट है ॥ ४९२ ॥ भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसीलसंजमादीणं । रक्खंतो चरदि मुणी णिव्वेदतिगं च पेच्छंतो ॥४९३॥