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मूलाचार
फासुगमिदि सिद्धेवि य अप्पट्ठकदं असुद्धं तु॥४८५॥
प्रगता असवो यस्मात् तस्मात् द्रव्यत इति तत् द्रव्यं । प्रासुकमिति सिद्धेपि च आत्मार्थकृतं अशुद्धं तु ॥ ४८५॥
अर्थ–साधु द्रव्य और भाव दोनोंसे प्रासुक द्रव्यका भोजन करे। जिसमेंसे एकेंद्री जीव निकल गये वह द्रव्य प्रासुक ( शुद्ध ) है । और जो प्रासुक आहार होनेपर भी 'मेरेलिये किया है' ऐसा चिंतन करे वह भावसे अशुद्ध जानना । तथा चिंतन नहीं करना वह भावशुद्ध आहार है ॥ ४८५ ॥ जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छया हि मजति । ण हि मंडूगा एवं परमट्ठकदे जदि विसुद्धो ॥ ४८६ ॥ यथा मत्स्यानां प्रकृते मदनोदके मत्स्या हि मज्जंति । न हि मंडूका एवं परमार्थकृते यतिः विशुद्धः ॥ ४८६ ॥
अर्थ-जैसे माछलाओंके निमित्त मदनकारण जल मांछलाओंको ही मतवाला करता है मेंडकोंको नहीं उसीतरह दूसरेके लिये बनाये गये भोजनमें साधु दोषयुक्त नहीं होता शुद्ध ही रहता है ॥ ४८६ ॥ आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वेवि बंधओ भणिओ। सुद्धं गयेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो॥ ४८७ ॥
अधःकर्मपरिणतः प्रासुकद्रव्येपि बंधको भणितः । शुद्धं गवेषयमाणः अधःकर्मण्यपि स शुद्धः ॥ ४८७ ॥
अर्थ-द्रव्य प्रासुक होनेपर भी जो साधु ऐसा कहे कि 'गौरवसे मेरेलिये ऐसा भोजन किया है' तो कर्मका बंध करने वाला होता है । और अपनी अनुमोदनादि रहित देखता हुआ