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पिण्डशुद्धि-अधिकार ६। १८९ नवकोटिपरिशुद्धं अशनं द्वाचत्वारिंशदोषपरिहीनं । संयोजनया हीनं प्रमाणसहितं विधिसु दत्तं ॥ ४८२ ॥ विगतांगारं विधृमं षट्कारणसंयुतं क्रमविशुद्धं । यात्रासाधनमात्रं चतुर्दशमलवर्जितं भुंक्ते ॥ ४८३ ॥
अर्थ-ऐसे आहारको लेना चाहिये-जो नवकोटि अर्थात् मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे शुद्ध हो, व्यालीस दोषोंकर रहित हो, संयोजनादोषसे रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, विधिसे अर्थात् नवधा भक्ति दाताके सातगुणसहित क्रियासे दिया गया हो। अंगारदोष धूमदोष इन दोनोंसे रहित हो, छह कारणों सहित हो, क्रमविशुद्ध हो, प्राणोंके धारणके लिये हो, अथवा मोक्षयात्राके साधनेके लिये हो, और चौदह मलोंसे रहित हो । ऐसा भोजन साधु ग्रहण करे ॥ ४८२-४८३ ॥ ___ आगे चौदह मलोंके नाम कहते हैं;णहरोमजंतुअट्ठीकणकुंडयपूयिचम्मरुहिरमंसाणि । बीयफलकंदमूला छिण्णाणि मला चउद्दसा होंति॥४८४
नखरोमजंत्वस्थिकणकुंडपूतिचर्मरुधिरमांसानि । बीजफलकंदमूलानि छिन्नानि मलानि चतुर्दश भवंति४८४ अर्थ-नख रोम (बाल ) प्राणरहितशरीर, हाड, गेंहू आदिका कण, चावलका कण, खराब लोही (राधि ), चाम, लोही, मांस, अंकुर होने योग्य गेंहू आदि, आम्र आदि फल, कंद मूल-ये चौदह मल हैं। इनको देखके आहार त्याग देना चाहिये ॥ ४८४ ॥ पगदा असओ जह्मा तह्मादो दव्वदोत्ति तं व्वं ।