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पिण्डशुद्धि-अधिकार ६। . १९१ साधु आरंभरूप अधःकर्मसे उत्पन्न हुए भी आहारको ग्रहण करता है तौभी वह शुद्ध है कर्मबंध नहीं होता ॥ ४८७ ।। सम्वोवि पिंडदोसो व्वे भावे समासदो दुविहो । दव्यगदो पुण दवे भावगदो अप्पपरिणामो ॥४८८॥ सर्वः अपि पिंडदोषः द्रव्ये भाव समासतो द्विविधः। द्रव्यगतो पुनः द्रव्ये भावगतो आत्मपरिणामः ॥ ४८८॥
अर्थ-सभी पिंडदोषके संक्षपसे दो भेद हैं द्रव्यगत भावगत । द्रव्यमें जो रहता है वह द्रव्यगत है और अपने परिणामोंमें जो मलिनता है वह भावगत है ॥ ४८८ ॥
आगे द्रव्यका भेद कहते हैंसव्वेसणं च विद्देसणं च सुद्धासणं च ते कमसो। एसणसमिदिविसुद्धं णिवियडमवंजणं जाणे ॥४८९॥ सर्वैषणं च विद्धषणं च शुद्धाशनं च ते क्रमशः । एषणासमितिविशुद्धं निर्विकृतमव्यंजनं जानीहि ॥४८९॥
अर्थ- सर्वेषण विद्वैषण शुद्धासन खरूप तीन प्रकार द्रव्य है वह क्रमसे इन स्वरूप है कि जो एषणासमितिसे पवित्र हो, विकृतियोंसे रहित हो और व्यंजन रहित हो वह द्रव्य प्रासुक भोजन होता है ॥ ४८९ ॥ दव्वं खेत्तं कालं भावं बलवीरियं च णाऊण ।.. कुजा एषणसमिर्दि जहोवदिटुं जिणमदम्मि ॥४९०॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं बलवीर्य च ज्ञात्वा । कुर्यात् एषणासमितिं यथोपदिष्टां जिनमते ॥ ४९० ॥ अर्थ-आहारादि द्रव्य, अनूप आदि क्षेत्र, शीत आदि काल,