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पिण्डशुद्धि-अधिकार ६। १७१ जक्खयणागादीणं बलिसेसं स बलित्ति पण्णत्तं । संजदआगमण8 बलियम्म वा बलिं जाणे ॥ ४३१ ॥
यक्षनागादीनां बलिशेषं स बलिरिति प्रज्ञप्तः । संयतागमनार्थ बलिकर्म वा बलिं जानीहि ॥४३१॥
अर्थ-यक्षनागादिके लिये जो बलि (आहार ) किया हो उससे शेष रहा भोजन वह बलिदोष सहित है अथवा संयमियोंके आगमनकेलिये जो बलिकर्म ( सावद्य पूजन) करे वहां भी बलिदोष जानना ॥ ४३१ ॥ पाहुडिहं पुण दुविहं बादर सुहुमं च दुविहमेक्केकं । ओकस्सणमुक्कस्सणमह कालोवट्टणावड्डी ॥ ४३२॥ प्राभृतकं पुनर्द्विविधं बादरसूक्ष्मं च द्विविधमेकैकं । अपकर्षणमुत्कर्षणमथ कालापवर्तनवृद्धी ॥ ४३२ ॥
अर्थ-प्राभृतकदोषके दो भेद हैं बादर १ सूक्ष्म २ । इन दोनोंके भी दो दो भेद हैं अपकर्षण उत्कर्षण । कालकी हानिका नाम अपकर्षण है और कालकी वृद्धिको उत्कर्षण कहते हैं ४३२ दिवसे पक्खे मासे वास परत्तीय बादरं दुविहं । पुव्वपरमज्झवेलं परियत्तं दुविह सुहुमं च ॥ ४३३ ॥ दिवसं पक्षं मासं वर्ष परावृत्त्य बादरं द्विविधं । पूर्वोपरमध्यवेलं प्रावर्तितं द्विविधं सूक्ष्मं च ॥ ४३३ ॥
अर्थ-दिन पक्ष महीना वर्ष इनको बदलकर जो आहारदान देना वह बादर प्राभृत दोष है वह उत्कर्षण ( बढाना ) अपकर्षण (घटाना) करनेसे स्थूलदोष दो प्रकारका है । सूक्ष्मप्रावर्तितदोष भी दो प्रकारका है वह इसतरह है-पूर्वाह्नसमय मध्या