________________
१७८
मूलाचारजादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं । तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो॥४५०॥ जातिः कुलं च शिल्पं तपःकर्म ईश्वरत्वं आजीवं । तैः पुनः उत्पादः आजीवदोषो भवति एषः ॥ ४५० ॥ अर्थ-जाति, कुल, चित्रआदि शिल्प, तपश्चरणकी क्रिया, अपनेको महान प्रगट करना इत्यादि आजीविका करनेके वचन गृहस्थोंको कह आहार लेना वह आजीवदोष होता है। इसमें बलहीनपना व दीनपना दोष होता है ॥ ४५० ॥ साणकिविणतिधिमांहणपासंडियसवणकागदाणादी। पुण्णं णवेति पुढे पुण्णेत्ति वणीवयं वयणं ॥४५१॥
श्वाकृपणातिथिब्राह्मणपाषंडिश्रमणकाकदानादिः। पुण्यं नवा इति पृष्टे पुण्यमिति वनीपकं वचनं ॥ ४५१ ॥
अर्थ-कोई दाता ऐसे पूछे कि कुत्ता कृपण भिखारी असदाचारी ब्राह्मण भेषी साधु तथा त्रिदंडी आदि साधु और कौआइनको आहारादि देनेमें पुण्य होता है या नही? ऐसा पूछनेपर उसकी रुचिके अनुकूल ऐसा कहे कि पुण्य ही होता है वहां भोजन लेनेमें वनीपक दोष जानना । इसमें दीनता दोष है॥४५१॥ कोमारतणुतिगिंछारसायणविसभूदखारतंतं च । सालं कियं च सल्लं तिगिछदोसो दु अट्टविहो ॥४५२॥
कौमारतनुचिकित्सारसायनविषभूतक्षारतंत्रं च। .. शालकिकं च शल्यं चिकित्सादोषस्तु अष्टविधः ॥४५२॥
अर्थ-चिकित्सा शास्त्रके आठभेद हैं-बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतंत्र, भूततंत्र, क्षारतंत्र, शलाकाक्रिया,