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पिण्डशुद्धि-अधिकार ६। १७७ है स्नानकरानेवालीधाय, आभूषणपहरानेवाली धाय, बच्चेको रमानेवाली धाय, दूधपिलानेवाली धाय, माताके समान अपने पास सुलानेवाली अंबधाय । इनका जो उपदेश करके साधु भोजन ले वहां धात्रीदोष होता है । इसमें खाध्यायका नाश साधुमार्गमें दूषण लगता है ॥ ४४७ ॥ जलथलआयासगदं सयपरगामे सदेसपरदेसे । संबंधिवयणणयणं दूदीदोसो हवदि एसो ॥४४८॥
जलस्थलाकाशगतं स्वपरग्रामे स्वदेशपरदेशे। संबंधिवचननयनं दूतदोषः भवति एषः ॥ ४४८॥
अर्थ-कोई साधु अपने गामसे व अपने देशसे दूसरे गाममें व दूसरे देशमें जलके मार्ग नावमें बैठकर व स्थलमार्ग व आकाशमार्ग होकर जाय वहां पहुंचकर किसीके संदेसेको उसके संबंधीसे कहदे फिर भोजन ले तो वहां दूतदोष होता है॥४४८॥ वंजणमंगं च सरं छिपणं भूमं च अंतरिक्खं च । लक्खण सुविणं च तहा अविहं होइ णेमित्तं॥४४९॥
व्यंजनमंगं च स्वरः छिन्नः भूमिश्च अंतरिक्षं च । लक्षणं स्वप्नः च तथा अष्टविधं भवति निमित्तं ॥ ४४९ ॥
अर्थ-निमित्तज्ञानके आठ भेद हैं-मसा तिल आदि व्यंजन, मस्तक आदि अंग, शब्दरूप खर, वस्त्रादिका छेद वा तलवार आदिका प्रहार, भूमिविभाग, सूर्यादिग्रहोंका उदय अस्त होना, पद्म चक्र आदि लक्षण, सोते समय हाथी विमान आदिका दीखना-इन अष्टांगनिमित्तोंसे शुभाशुभ कहकर भोजन ले वहां निमित्तदोष होता है ॥ ४४९ ॥
१२ मूला.