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पिण्डशुद्धि-अधिकार ६। मालारोहिं किच्चा देयं मालारोहणं णाम ॥ ४४२ ॥
निःश्रेणीकाष्ठादिभिः निहितं पूंपादिकं तु गृहीत्वा । . मालारोहं कृत्वा देयं मालारोहणं नाम ॥ ४४२ ॥
अर्थ-काष्ठ आदिकी वनी सीढी अथवा पैडी (जीना) से घरके ऊपरके खन (माले) पर चढके वहां रखे हुए पूआ लड्डु आदि अन्नको लाकर साधुको देना वह मालारोहण दोष है। यहां दाताको विघ्न होना दीखता है ॥ ४४.२ ॥ रायाचोरादीहि य संजदभिक्खासमं तु दट्टणं । बीहेदूण णिजुज्जं अच्छिज्जं होदि णादव्वं ॥ ४४३ ॥ राजचौरादिभिश्च संयतभिक्षाश्रमं तु दृष्ट्वा । भीषयित्वा नियुक्तं आछेद्यं भवति ज्ञातव्यम् ॥ ४४३॥
अर्थ-संयमी साधुओंके भिक्षाके परिश्रमको देख राजा चोर आदि गृहस्थियोंको ऐसा डर दिखाकर कहें कि जो तुम इन साधुओंको भिक्षा नहीं दोगे तो हम तुम्हारा द्रव्य छीन लेंगे गामसे निकालदेंगे ऐसा डर दिखाकर दिया गया जो दान वह आछेद्यदोष है ऐसा जानना ॥ ४४३ ॥
आगे अनीशार्थ दोषको कहते हैं;अणिसढे पुण दुविहं इस्सरमह णिस्सरं चदुवियप्पं । पढमिस्सर सारक्खं वत्तावत्तं च संघाडं ॥ ४४४ ॥
अनीशार्थः पुनर्द्विविधः ईश्वरोथानीश्वरः चतुर्विकल्पः । प्रथम ईश्वरः सारक्षः व्यक्तोऽव्यक्तश्च संघाटः ॥ ४४४ ॥
अर्थ-अनीशार्थदोषके दो भेद हैं ईश्वर अनीश्वर । इन दोनोंके भी मिलकर चार भेद हैं पहला भेद ईश्वर सारक्ष तथा