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मूलाचारअप्रासुकेन मिश्रं प्रासुकद्रव्यं तु पूतिकर्म तत् । चुल्ली उदूखलः दर्वी भाजनं गंध इति पञ्चविधं ॥४२८॥
अर्थ-प्रासुक आहारादिक वस्तु सचित्तादिवस्तुसे मिश्रित हो वह पूतिदोष है । प्रासुकद्रव्य भी पूतिकर्मसे मिला पूतिकर्म कहलाता है उसके पांच भेद हैं-चूलि ओखली कड़छी पकानेके बासन गंधयुक्त द्रव्य । इन पांचोंमें संकल्प करना कि चूलि आदिसे पका हुआ भोजन जबतक साधुको न देदें तबतक किसीको नहीं देंगे । ये ही पांच आरंभ दोष हैं ॥ ४२८ ॥ __ आगे मिश्रदोषको कहते हैंपासंडेहिं य सद्धं सागारेहिं य जदण्णमुद्दिसियं । दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ॥४२९॥ पाखण्डैः सार्ध सागारैश्च यदन्नं उद्दिष्टं । दातुमिति संयतानां सिद्धं मिश्रं विजानीहि ॥ ४२९ ॥
अर्थ-प्रासुक तयार हुआ भोजन अन्य भेषधारियोंके साथ तथा गृहस्थोंके साथ संयमी साधुओंको देनेका उद्देश करे तो मिश्रदोष जानना ॥ ४२९॥ पागादु भायणाओ अण्णमि य भायणह्मि पक्खविय। सघरे व परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ॥४३०॥ पाकात् भाजनात् अन्यस्मिन् च भाजने प्रक्षिप्य ।। स्वगृहे वा परगृहे वा निहितं स्थापितं विजानीहि ॥४३०॥
अर्थ-जिस बासनमें पकाया था उससे दूसरे भाजनमें पके भोजनको रखकर अपने घरमें तथा दूसरेके घरमें जाकर उस अन्नको रख दे उसे स्थापित दोष जानना ॥ ४३० ॥