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- मूलाचार
१६८ प्रामृष्यं परिवर्तकं अभिघटं उद्भिनं मालारोहं । अच्छेद्यं अनिसृष्टं उद्गमदोषास्तु षोडश इमे ॥ ४२३ ॥
अर्थ-गृहस्थके आश्रित चक्की आदि आरंभरूप कर्म वह अधःकर्म है उसका तो सामान्यरीतिसे साधुके त्याग ही होता है। तथा उद्गमदोषके सोलहभेद कहते हैं-औदेशिकदोष, अध्यधिदोष, पूतिदोष, मिश्रदोष, स्थापितदोष, बलिदोष, प्रावर्तितदोष, प्राविष्करणदोष, क्रीतदोष, प्रामृष्यदोष, परिवर्तकदोष, अभिघटदोष, उद्भिन्नदोष, मालारोहदोष, अच्छेद्यदोष, अनिसृष्टदोष ॥ ___ आगे गृहस्थाश्रित अधःकर्मको कहते हैं;छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं । आधाकम्मं णेयं सयपरकदमादसंपण्णं ॥ ४२४ ॥ षट्जीवनिकायानां विराधनोदावनादिनिष्पन्न । अधःकर्म ज्ञेयं स्वपरकृतमात्मसंपन्नं ॥ ४२४॥
अर्थ-पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवोंको दुःख देना मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु वह अधःकर्म है । वह पापक्रिया आपकर की गई दूसरेकर कीगई आपकर अनुमोदना कीगई जानना ॥ ४२४ ॥ देवदपासंडढें किविणटुं चावि जंतु उद्दिसियं । कदमण्णसमुद्देसं चदुविधं वा समासेण ॥ ४२५ ॥
देवतापाखंडार्थ कृपणार्थं चापि यत्तु औद्देशिकं । कृतमन्नं समुद्देशं चतुर्विधं वा समासेन ॥ ४२५ ॥
अर्थ-नागयक्षादिदेवताके लिये, अन्यमतीपाखंडियोंकेलिये, दीनजनकृपणजनोंके निमित्त उनके नामसे बनाया गया भोजन वह