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मूलाचारपंचरसाः पंचवर्णा द्वौ गंधौ अष्ट स्पर्शाः सप्त स्वराः। मानसः चतुर्दश जीवाः इन्द्रियप्राणाश्च संयमः ज्ञेयः ४१८
अर्थ-पांचरस पांचवर्ण दो गंध आठ स्पर्श षड्जआदि सात खर, मनका विषय-इन अट्ठाईस विषयोंका निरोध वह इन्द्रिय संयम है । और चौदह प्रकारके जीवोंकी रक्षाकरना वह प्राणसंयम है । इसतरह संयमके दो भेद हैं ॥ ४१८ ॥ ___ अब पंचाचारकी महिमा कहते हैं;दसणणाणचरित्तेतवविरियाचारणिग्गहसमत्थो। अत्ताणं जो समणो गच्छदि सिद्धिं धुदकिलेसो ४१९ दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याचारनिग्रहसमर्थः। आत्मानं यः श्रमणो गच्छति सिद्धिं धौतक्लेशः॥४१९॥
अर्थ-जो साधु दर्शन ज्ञान चारित्र तप वीर्याचारकर अपने आत्माको नियमरूप करनेमें समर्थ है वह साधू आठ कर्मोंका नाशकर मुक्तिको प्राप्त होता है ॥ ४१९ ॥
इसतरह पंचाचारका व्याख्यान किया । इसप्रकार आचार्यश्रीवट्टकेरिविरचितमूलाचारकी हिंदीभाषाटीकामें पंचाचारोंको कहनेवाला पांचवां पंचाचाराधि
कार समाप्त हुआ ॥५॥