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पंचाचाराधिकार ५। १६५ पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो। . विगतिचदुपंचेंदियअजीवकायेसु संजमणं ॥ ४१६ ॥ अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेखवहरणदु संजमो चेव । मणवयणकायसंजम सत्तरसविधो दु णादव्वो ॥४१७
पृथिव्युदकतेजोवायुवनस्पतिसंयमश्च बोद्धव्यः। द्वित्रिचतुःपंचेंद्रियाजीवकायेषु संयमनं ॥ ४१६॥ अप्रतिलेखं दुष्प्रतिलेखं उपेक्षा अपहरणस्तु संयमश्चैव । मनोवचनकायसंयमः सप्तदशविधस्तु ज्ञातव्यः ॥ ४१७ ॥
अर्थ-पृथिवीकायिक जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पतिकाय-इन पांचोंप्रकारके जीवोंकी रक्षाकरना वह पांचप्रकारका संयम है । और दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पंचेंद्रिय जीवोंकी रक्षा इसतरह चार भेद ये हुए । तथा सूकेतृण आदिका छेदन न करनेरूप अजीवकाय रक्षा इसका एक भेद-इसप्रकार दस भेद हुए । अप्रतिलेख दुष्प्रतिलेख उपेक्षा अपहरणसंयम मनःसंयम वचनसंयम कायसंयम-इन सात भेदोंको मिलानेसे संयमके सत्रह भेद होते हैं ॥ पीछीसे द्रव्यका शोधन वह अप्रतिलेखसंयम है। यत्नपूर्वक प्रमाद रहित शोधन वह दुष्प्रतिलेखसंयम है । उपकरणादिको प्रतिदिन देखलेना कि इसमें जीव तो नहीं है वह उपेक्षासंयम है । उपकरणोंमेंसे द्वींद्रियादि जीवोंको दूर करदेना वह अपहरण संयम है । ये सत्रहप्रकारका संयम वीर्याचारकी रक्षा करता है ॥ ४१६।४१७ ॥ पंचरस पंचवण्णा दो गंधे अट्ट फास सत्तसरा । मणसा चोदसजीवा इन्दियपाणा य संजमोणेओ॥