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पंचाचाराधिकार ५। संवर करता है मन आदि तीनगुप्तियोंका भी पालनेवाला होता है और एकाग्रचित्त हुआ विनयकर संयुक्त होता है ॥ ४१०॥ सिद्धिप्पासावदंसयस्स करणं चदुव्विहो होदि । दव्वे खेत्ते काले भावेवि य आणुपुव्वीए॥४११॥ सिद्धिप्रासादावतंसकस्य करणं चतुर्विधं भवति । द्रव्यं क्षेत्र कालं भावमपि च आनुपूया ॥ ४११॥
अर्थ-मुक्तिरूपी महलका आभूषण जो यह बारहप्रकारका तप उसका अनुष्ठान क्रमसे द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप चारप्रकारका है । आहार शरीर आदि द्रव्य; बहुत जलवालेदेश, निर्जलदेश, जांगलदेश आदि क्षेत्र अथवा खिग्धरूक्षवात आदिके आश्रय; शीत उष्ण वर्षा आदि काल और चित्तका संक्लेशपरिणामरूप भाव जानना । जिसतरह वातादिका विकार न हो ऐसे क्रमसे तप करना ॥ ४११ ॥ अब्भंतरसोहणओ एसो अब्भतरो तओ भणिओ। एत्तो विरियाचारं समासओ वण्णइस्सामि ॥४१२॥
अभ्यंतरशोधनकं एतत् अभ्यंतरं तपो भणितं । इतो वीयोचारं समासतः वर्णयिष्यामि ॥ ४१२॥
अर्थ- अंतरंगको शुद्ध करनेवाला यह अभ्यंतर तप कहा, इससे आगे वीर्याचारको संक्षेपसे वर्णन करता हूं ॥ ४१२ ॥
आगे वीर्याचारका खरूप कहते हैं;अणिगृहियबलविरिओ परकामदि जो जहुत्तमाउत्तो। खंजदि य जहाथाणं विरियाचारोति णादव्वो॥४१३॥
अनिगृहितबलवीर्यः पराक्रमते यः यथोक्तमात्मनः ।