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मूलाचार
युनक्ति च यथास्थानं वीर्याचार इति ज्ञातव्यः॥ ४१३ ॥ .. अर्थ-नहीं छिपाया है आहार आदिसे उत्पन्न बल तथा खयं शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्तचारित्रमें तीन प्रकार अनुमति रहित सत्रह प्रकार संयमविधानकरनेकेलिये आत्माको युक्त करता है वह वीर्याचार जानना ॥ ४१३ ॥ पडिसेवा पडिसुणणं संवासो चेव अणुमदी तिविहा। उद्दिढ जदि भुंजदि भोगदि य होदि पडिसेवा ॥४१४
प्रतिसेवा प्रतिश्रवणं संवासः चैव अनुमतिः त्रिविधा । उद्दिष्टं यदि भुंक्ते भोगयति च भवति प्रतिसेवा ।। ४१४ ॥
अर्थ-प्रतिसेवा प्रतिश्रवण संवास ये तीन भेद अनुमतिके हैं। जो पात्रका नाम ले पात्रके अभिप्रायसे आहारादिका भोजन करावे और पात्र करे तो उस पात्रके प्रतिसेवा अनुमतिका भेद होता है ।। उद्दिढ जदि विचरदि पुव्वं पच्छा व होदि पडिसुणणं। सावजसंकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो॥ ४१५॥
उद्दिष्टं यदि विचरति पूर्व पश्चात् वा भवति प्रतिश्रवणं । सावद्यसंक्लिष्टो ममत्वभावस्तु संवासः ॥ ४१५ ॥
अर्थ-दाता यदि साधुको पहले कहदे कि तुझारे निमित्त आहारादिक प्रासुक तयार कर रखा है अथवा आहारादि लेनेके पीछे कहे तो सुनकर साधु आहार ग्रहण करले तथा संतोषकर तिष्ठे तो उसके प्रतिश्रवण नामा अनुमतिका भेद होता है और जो आहारादिके निमित्त ऐसा ममत्वभाव करे कि ये गृहस्थलोक हमारे हैं वह संवास नामा तीसरा अनुमतिका भेद है । इसकारण वीर्याचार पालनेवालेको ये तीन दोष छोड़देने चाहिये ॥ ४१५ ।।