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मूलाचारछह दोष और क्रोध आदि चार कषाय-इसप्रकार चौदह अभ्यंतर परिग्रह हैं । इनका त्याग वह अभ्यंतरव्युत्सर्ग है ॥ ४०७ ॥ खेत्तं वत्थु धणधण्णगदं दुपदचदुप्पदगदं च । जाणसयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होंति ४०८
क्षेत्रं वास्तु धनधान्यगतं द्विपदचतुष्पदगतं च । यानशयनासनानि च कुप्ये भांडेषु दश भवंति ॥ ४०८ ॥
अर्थ-खेत, घर, सोना आदि धन, गेंहू आदि धान्य, दासीदास, गाय आदि, सवारी, पलंग, चौकी पटा आदि आसन, कपास आदि, हींग आदि अथवा भाजन (वर्तन) आदि-ये दस बाह्यपरिग्रह हैं। इनका त्याग वह बाह्यव्युत्सर्ग है ॥ ४०८॥
आगे बारहतपोंमेंसे खाध्यायकी अधिकता दिखलाते हैं;बारसविधह्मिवि तवे सम्भंतरबाहिरे कुसलदिठे। णवि अत्थि णवि य होही सज्झायसमो तवोकम्मं ॥ द्वादशविधेपि तपसि साभ्यंतरबाह्ये कुशलदृष्टे । नाप्यस्ति नापि च भविष्यति स्वाध्यायसमं तपःकर्म ४०९
अर्थ-सर्वज्ञदेवकर उपदेशे हुए अभ्यंतर और बाह्य भेद सहित बारह प्रकारके तपमेंसे खाध्यायतपके समान अन्य (दूसरा) कोई भी न तो है और न होगा ॥ ४०९॥ सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य । हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू ॥
स्वाध्यायं कुर्वन् पंचेंद्रियसंवृतः त्रिगुप्तश्च । भवति च एकाग्रमनाः विनयेन समाहितो भिक्षुः॥४१०॥ अर्थ-जो साधु खाध्याय करता है वह पांचों इन्द्रियोंका