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पंचाचाराधिकार ५।
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र्थक हैं। ऐसा न समझकर जो ग्रहण करता है वह वैदिकमूढ है।। रत्तवडचरगतावसपरिहत्तादीय अण्णपासंढा। संसारतारगत्तिय जदि गेण्हइ समयमूढो सो॥२५९॥ रक्तपटचरकतापसपरिव्राजकादयः अन्यपाषंडाः । संसारतारका इति च यदि गृह्णाति समयमूढः सः॥२५९॥
अर्थ-बौद्ध नैयायिक वैशेषिक जटाधारी सांख्य, आदिशब्दसे शैव पाशुपत कापालिक आदि अन्यलिंगी हैं वे संसारसे तारनेवाले हैं-इनका आचरण अच्छा है ऐसा ग्रहण करना वह सामायिकमूढता दोष है ॥ २५९ ॥ ___ अब देवमूढताका स्वरूप कहते हैं;ईसरबंभाविण्हूअज्जाखंदादिया य जे देवा। ते देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो ॥ २६०॥
ईश्वरब्रह्माविष्णुआर्यास्कंदादयश्च ये देवाः। ते देवभावहीना देवत्वभावने मूढः ॥ २६० ॥
अर्थ-ईश्वर ( महादेव ) ब्रह्मा विष्णु पार्वती खामिकार्तिकेय इत्यादिक देव देवपनेसे रहित हैं परमार्थदेवपना भी नहीं है। इनमें देवपनेकी भावना करना वह देवमूढता है ॥ २६०॥ ___ अब उपगृहनगुणका खरूप कहते हैं;दसणचरणविवण्णे जीवे दट्टण धम्मभत्तीए । उपगृहणं करंतो दंसणसुद्धो हवदि एसो ॥ २६१ ॥ दर्शनचरणविपन्नान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मभक्त्या । उपगृहनं कुर्वन् दर्शनशुद्धो भवति एषः ॥ २६१॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमें ग्लानि सहित जीवोंको देखकर