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मूलाचारअन्यदपेक्ष्यसिद्धं प्रतीत्यसत्यं यथा भवति दीर्घ । व्यवहारेण च सत्यं रध्यते क्रूरो यथा लोके ॥३११ ॥
अर्थ-अन्यकी अपेक्षासे जो कहा जाय वह प्रतीत्यसत्य है जैसे यह दीर्घ (बडा ) है यहां हूखकी अपेक्षासे है । जो लोकमें भात पकता है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहारसत्य है ३११ संभावणा य सचं जदि णामेच्छेन्ज एव कुजंति । जदि सको इच्छेन्जो जंबूदीवं हि पल्लत्थे ॥ ३१२॥
संभावना च सत्यं यदि नाम इच्छेत् एवं कुर्यात् ।। यदि शक्रः इच्छेत् जंबूद्वीपं हि परिवर्तयेत् ॥ ३१२ ॥
अर्थ-जैसी इच्छा रखे वैसा ही करसके वह संभावनासत्य है जैसे इंद्र इच्छा करे तो जंबूद्वीपको पलटा सकता है ॥ ३१२।। हिंसादिदोसविजुदं सच्चमकप्पियवि भावदो भावं । ओवम्मेण दुसत्यं जाणसु पलिदोवमादीया ॥३१३॥ हिंसादिदोषवियुतं सत्यमकल्पितमपि भावतो भावं ।
औपम्येन तु सत्यं जानीहि पल्योपमादिकं ॥ ३१३ ॥ अर्थ-जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसीने पूछा कि चोर देखा उसने कहा कि नहीं देखा । जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पल्योपम सागरोपम आदि कहना ॥ ३१३ ॥
अब असत्यादिवचनको कहते हैं;तविवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोसं तं । तविवरीदा भासा असच्चमोसा हवदि दिट्ठा ॥३१४॥
तद्विपरीतं मृषा तदुभयं यत्र सत्यमृषा तत् ।