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मूलाचारअर्थ जैसे लड़ाईके स्थानमें वाणोंकी वर्षासे पड़ते हुए तीक्ष्णवाणोंसे दृढ वगतरवाला पुरुष भेदको प्राप्त नहीं होता उसीतरह छह जीवजातिसमूहोंमें विहार करता हुआ साधु समितियोंकर पापसे लिप्त नहीं होता ॥ ३२८ ॥ जत्थेव चरदि बालो परिहारण्हूवि चरदि तत्थेव । वज्झदि पुण सो बालो परिहारण्हू विमुच्चदि सो॥३२९॥
यत्रैव चरति बालः परिहरमाणोपि चरति तत्रैव । बध्यते पुनः स बालः परिहरमाणो विमुच्यते सः॥३२९॥
अर्थ-जहांपर बाल ( अज्ञानी ) भ्रमण करता है आचरण करता है वहां ही त्यागी साधु भी आचरण व भ्रमण करता है, परंतु अज्ञानी लिप्त होनेसे बंधता है और त्याग करनेवाला साधु यत्नाचारमें लीन होनेसे कर्मोंसे मुक्त होता है ॥ ३२९ ॥ तम्हा चेद्विदुकामो जइया तइया भवाहि तं समिदो। समिदोहु अण्ण णदियदि खवेदि पोराणयं कम्मं ॥३३० तसात् चेष्टितुकामो यदा तदा भव त्वं समितः । समितः खलु अन्यत् नाददाति क्षपयति पुराणं कर्म ॥३३०॥
अर्थ-इसकारण हे मुनि ! जब गमनकरनेकी इच्छा है तब तू समितिमें परिणत हो, क्योंकि जो मुनि समितिमें परिणत होता है वह नवीन कर्मोंको तो ग्रहण नहीं करता और पुराने कर्मों को क्षय करता है ॥ ३३० ॥
अब गुप्तिका स्वरूप कहते हैंमणवचकायपउत्ती भिक्खू सावज्जकजसंजुत्ता। 'खिप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हवदि एसो॥३३१॥