________________
मूलाचारअर्थ-जैसे अनाजके खेतकी रक्षाके लिये वाड़ि होती है अथवा नगरकी रक्षारूप खाई तथा कोट होता है उसीतरह पापके रोकनेके लिये संयमी साधुके ये गुप्तियां होती हैं ॥ ३३४ ॥ तम्हा तिविहेण तुमं णिचं मणवयणकायजोगेहिं। होहिमु समाहिदमई णिरंतरं झाण सज्झाए ॥३३५॥ तसात् त्रिविधेन त्वं नित्यं मनोवचनकाययोगैः । भव समाहितमतिः निरंतरं ध्याने स्वाध्याये ॥ ३३५॥
अर्थ-इसकारण हे साधु तू कृत कारित अनुमोदना सहित मनवचनकायके योगों (प्रवृत्ति ) से हमेशा ध्यान और खाध्यायमें सावधानीसे चित्तको लगा ॥ ३३५ ॥ एताओ अपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं । रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ॥३३६॥
एता अष्टप्रवचनमातरः ज्ञानदर्शनचारित्रं । रक्षति सदा मुनेः माता पुत्रमिव प्रयताः ॥ ३३६ ॥
अर्थ-ये पांच समिति तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचनमातायें मुनिके ज्ञान दर्शन चारित्रकी सदा ऐसे रक्षा करती हैं कि जैसे सावधान माता पुत्रकी रक्षा करती हो ॥ ३३६ ॥ ___ आगे व्रतोंकी भावनाओंको कहते हैंएसणणिक्खेवादाणिरियासमिदी तहा मणोगुत्ती। आलोयभोयणंपि य अहिंसाए भावणा पंच ॥३३७॥ एषणानिक्षेपादानेर्यासमितयः तथा मनोगुप्तिः। आलोक्यभोजनमपि च अहिंसाया भावनाः पंच ॥३३७॥ अर्थ-एषणासमिति, निक्षेपादानसमिति, ईर्यासमिति, मनो.