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मूलाचार
चारित्र में उत्पन्न हुए अपराधोंको आचार्यके सामने निवेदन करना वह आलोचना है, रात्रिभोजनत्यागवतके साथ महाव्रतोंकी भावना करना दिवस प्रतिक्रम पाक्षिकआदि प्रतिक्रमण करना वह प्रतिक्रमण है, आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना वह उभय है, गणविवेक स्थानविवेक ऐसे दो प्रकारका विवेक है, कायोत्सर्गको व्युत्सर्ग कहते हैं, अनशनादि तप हैं, दीक्षाका पक्ष मासा दिसे घटाना वह छेद है, फिर उस समयसे लेकर व्रत धारण करना वह मूल है, परिहारके दो भेद हैं गणप्रतिबद्ध अगणप्रतिबद्ध । उनमेंसे जहां गणमें बैठकर क्रिया करना कि जहां मुनिजन मूत्रादि करते हों वहां बैठ पीछी अगाडीकर यतिओंको वंदना करे उसको यति प्रतिवंदना न करे वह गणप्रतिबद्ध है। तथा जिस देशमें धर्म नहीं जाने वहां जाके मौनधारण करके तपश्चरण करना वह अगणप्रतिबद्ध है । तत्त्वोंमें रुचि होनेरूप परिणाम अथवा क्रोधादिका त्याग वह श्रद्धान है। इसतरह प्रायश्चित्तके दश भेद जानना॥३६२ पोराणकम्मखमणं खिवणं णिजरण सोधणं धुभणं । पुच्छणमुछिवण छिदणं ति पायचित्तस्स णामाइं३६३
पुराणकर्मक्षपणं क्षेपणं निजेरणं शोधनं धावनं । पुच्छनं उत्क्षेपणं छेदनमिति प्रायश्चित्तस्य नामानि ॥३६३॥
अर्थ-पुराने कर्मोंका नाश, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन ( निराकरण ) उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण ) ये सब प्रायश्चित्तके नाम हैं ॥ ३६३ ॥
आगे विनयका खरूप कहते हैं;दसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ।