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मूलाचार
आगे विविक्तशय्यासनका स्वरूप कहते हैं; - तेरिक्खी माणुस्सिय सविकारिणिदेविगेहिसंसत्ते । वजेंति अप्पमत्ता णिलए सयणासणट्ठाणे ॥ ३५७ ॥ तिरी मानुषी सविकारणीदेवीगेहिसंसक्तान् । वर्जयंति अप्रमत्ता निलयान् शयनासनस्थानेषु ॥ ३५७ ॥ अर्थ — गाय आदि तिर्यचिनी, कुशील स्त्री, भवनवासी व्यंतरी देवी, असंयमी गृहस्थ - इनके रहनेके निवासोंको यत्नाचारी मुनि शयन आसन खड़ारहना इन तीन कार्यों में छोड़ै अर्थात् वहां शयनादि न करे || ३५७ ॥ उसीके विविक्तशय्यासन तप होता है ।
सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि । ' जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण हीयते ॥ ३५८ ॥
तत् नाम बाह्यतपः येन मनः दुष्कृतं न उत्तिष्ठति । येन च श्रद्धा जायते येन च योगा न हीयते ॥ ३५८ ॥ अर्थ - हे शिष्य ! वही बाह्यतप है जिससे कि चित्तमें क्लेश ( खेद ) न हो, जिससे धर्ममें प्रीति वढे और जिससे मूलगुणोंमें कमी न हो ॥ ३५८ ॥
एसो दु बाहिरतवो बाहिरजणपायडो परम घोरो । अभंतरजणणां वोच्छं अब्भंतरं वि तवं ॥ ३५९ ॥ एतत्तु बाह्यं तपो बाह्यजनप्रकटं परमं घोरं । अभ्यंतरजनज्ञातं वक्ष्ये अभ्यंतरमपि तपः ॥ ३५९ ॥ अर्थ – यह छह प्रकारका तप बाह्य मिथ्यादृष्टियोंके भी प्रगट अत्यंत दुर्धर हो सकता है इसलिये बाह्यतप कहा जाता है । और