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मूलाचार
मूलादि योगों में तथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और इंद्रियोंको स्वेच्छाचारी नहीं होने देती ३५१ आगे रसपरित्याग तपका स्वरूप कहते हैं;खीरद हिसप्पितेलगुडलवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्तकडुकसायंबिलमधुररसाणं च जं चयणं ॥ ३५२ ॥
क्षीरदधिसर्पिस्तैलगुडलवणानां च यत् परित्यजनं । तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसानां च यत् त्यजनं ॥ ३५२ ॥ अर्थ — दूध दही घी तेल गुड लवण ( नोंन ) इन छह रसोंका त्याग अथवा चर्परा कडुआ कसैला खट्टा मीठा इनमें से त्याग वह रसपरित्याग तप है ॥ ३५२ ॥
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आगे चार महाविकृतियों को कहते हैं ;चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमज्जमं समधू । कंखापसंगप्पासंजमकारीओ एदाओ ॥ ३५३ ॥
चतस्रो महाविकृतयश्च भवंति नवनीतमद्यमांसमधूनि । कांक्षाप्रसंगदर्पासंयमकारिण एताः || ३५३ ॥
अर्थ —लोंनीघी, मदिरा, मांस, शहत ये चार महाविकृतियां हैं वे काम मद ( अभिमान व नशा ) और हिंसाको करत हैं ॥ ३५३ ॥
आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण । ताओ जावज्जीवं णिवुडाओ पुरा चेव ॥ ३५४ ॥ आज्ञाभिकांक्षिणा अद्यभीरुणा तपः समाधिकामेन । ताः यावज्जीवं निर्व्यूढा पुरा चैव ॥ ३५४ ॥ अर्थ- सर्वज्ञकी आज्ञाको माननेवाले पापोंसे डरनेवाले और