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पंचाचाराधिकार ५।
१३३ अर्थ-उसी कहे हुए क्रमसे प्रतिष्ठापना समिति भी वर्णन की गई है उसीक्रमसे त्यागने योग्य मलमूत्रादिको उक्त स्थंडिल स्थानमें निक्षेपण करे । उसीके प्रतिष्ठापना समिति शुद्ध होती है ॥ ३२५॥ एदाहिं सया जुत्तो समिदीहिं महिं विहरमाणोवि । हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकाआउले साहू ॥३२६॥
एताभिः सदा युक्तः समितिभिः मह्यां विहरमाणोपि । हिंसादिभिर्न लिप्यते जीवनिकायाकुलायां साधुः ॥३२६॥
अर्थ-इन पांच समितियोंसे हमेशा युक्त साधु जीवोंके समूहसे भरी हुई पृथ्वीमें विहार करता हुआ भी हिंसादि पापोंसे लिप्त नहीं होता ॥ ३२६ ॥ पउमिणिपत्तं वजहा उदएणण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं तह समिदीहिं ण लिप्पदि साधू काएसुइरियंतो॥३२७
पद्मिनीपत्रं वा यथा उदकेन न लिप्यते स्नेहगुणयुक्तं । तथा समितीभिः न लिप्यते साधुः कायेषु ईयन् ॥३२७॥
अर्थ-जैसे कमलिनीका पत्र जलमें वढा है तौभी खेहगुण (चिकनाई ) से युक्त हुआ जलसे लिप्त नहीं होता, उसीतरह समितियोंकर सहित साधु भी जीव समूहोंमें विहार करता हुआ पापसे लिप्त नहीं होता ॥ ३२७ ॥ सरवासेहि पडतेहि जह दिढकवचोण भिजदि सरेहिं । तह समिदीहिंण लिप्पइ साहू काएसु इरियंतो॥३२८॥
शरवः पतद्भिः यथा दृढकवचो न भिद्यते शरैः। तथा समितिभिः न लिप्यते साधुः कायेषु ईर्यन् ॥३२८॥