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पंचाचाराधिकार ५ ।
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दोषरहित तपश्चरणकर, जीवोंकी दया व अनुकंपाकर जैन धर्मकी प्रभावना करनी चाहिये । आदिशब्दसे परवादियोंको जीतना अष्टांगनिमित्तज्ञान पूजा दान आदि समझना, इनसे भी धर्मकी प्रभावना करनी चाहिये ॥ २६४ ॥
जं खलु जिणोवदिहं तमेव तत्थिति भावदो गहणं । सम्महंसणभावो तव्विवरीदं च मिच्छत्तं ॥ २६५ ॥ यत् खलु जिनोपदिष्टं तदेव तथ्यमिति भावतो ग्रहणं । सम्यग्दर्शनभावः तद्विपरीतं च मिथ्यात्वं ॥ २६५ ॥ अर्थ - जो जिनेंद्र भगवानने पदार्थ उपदेश किया है वही सत्य है ऐसा भाव से ग्रहण करना वही सम्यग्दर्शन भाव है और इससे उलटा अर्थात् जिनोपदिष्ट तत्त्वका श्रद्धान नहीं होना वह निसर्ग मिथ्यात्व है ॥ २६५ ॥
दंसणचरणो एसो णाणाचारं च वोछमट्ठविहं । अट्ठविहकम्ममुको जेण य जीवो लहइ सिद्धिं ॥ २६६ ॥ दर्शनचरण एष ज्ञानाचारं च वक्ष्ये अष्टविधं । अष्टविधकर्ममुक्तः येन च जीवः लभते सिद्धिम् ॥ २६६ ॥ अर्थ — यह दर्शनाचार संक्षेपसे मैंने कहा । अब आठप्रकार ज्ञानाचारको कहता हूं जिससे कि यह जीव आठ प्रकारके ज्ञानावरणादिकर्मोकर रहित हुआ मोक्षको पाता है ॥ २६६ ॥
आगे ज्ञानाचारका स्वरूप वतलाते हैं;
जेण तच्चं विवुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज तं णाणं जिणसासणे ॥ २६७॥ येन तत्त्वं विबुध्यते येन चित्तं निरुध्यते ।