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पंचाचाराधिकार ५।
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तेसिं पंचपि य वयाणमावज्जणं च संका वा । आदविवत्ती अ हवे रादी भत्तप्पसंगेण ।। २९६ ।। तेषां पंचानामपि च व्रतानामावर्जनं च शंका वा । आत्मविपत्तिश्च भवेत रात्रिभक्तप्रसंगेन ।। २९६ ॥ अर्थ — उन मुनियोंके रात्रिभोजन के लिये गमन करने से पांच व्रतोंका भंग अथवा मलिनता, चोर आदिकी शंका और कोतवाल आदिसे बंधने आदिकी विपत्ति अपने ऊपर आपड़ती है। इसलिये रात्रिभोजनका त्याग अवश्य करना ॥ २९६ ॥
आगे आठ प्रवचनमाताओंसे आठ भेद चारित्रके होते हैं;पणिधाणजोगजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । एस चरित्ताचारो अट्ठविधो होइ णायव्वो ।। २९७ ॥
प्रणिधानयोगयुक्त पंचसु समितिषु त्रिषु गुप्तिषु । एष चरित्राचारः अष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ॥ २९७ ॥ अर्थ — परिणामके संयोगसे पांच समिति तीन गुप्तियों में न्यायरूप प्रवृत्ति वह आठ भेदवाला चारित्राचार है ऐसा जानना ॥ २९७ ॥
पणिधापि यदुविहं पसत्थ तह अपसत्थं च । समिदीसु य गुत्ती य सत्थं सेसमप्पसत्थं तु २९८ प्रणिधानमपि च द्विविधं प्रशस्तं तथा अप्रशस्तं च । समितिषु च गुप्तिषु च शस्तं शेषमप्रशस्तं तु ॥ २९८ ॥
अर्थ - परिणामके भी दो भेद हैं- शुभ और अशुभ | पांच समिति और तीन गुप्तियोंमें जो परिणाम वे शुभ होते हैं और शेष इन्द्रियविषयोंमें जो परिणाम है वह अशुभ है ॥ २९८ ॥