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मूलाचारग्रामं नगरं अरण्यं स्थूलं सचित्तं बहु सप्रतिपक्षं । अध्यात्म बहिःस्थं त्रिविधेन परिग्रहं वर्जयेत् ॥ २९३ ॥
अर्थ-गाम नगर वन क्षेत्र घर दासीदास गाय भैंस बहुत प्रकारके अथवा सूक्ष्म अचेतन एकरूप वस्त्रसुवर्ण आदि बाह्यपरिग्रह और मिथ्यात्व आदि अंतरंग परिग्रह-इन सबको मनबचनकाय कृत कारित अनुमोदनासे मुनि आदिको त्यागना चाहिये ॥ यह परिग्रहत्याग व्रत है ॥ २९३ ॥
आगे महाव्रत शब्दकी व्युत्पत्ति (अक्षरार्थ) करते हैं;साहेति जें महत्थं आचरिदाणी अ ज महल्लेहिं । जं च महल्लाणि तदो महव्वदाई भवे ताई ॥ २९४ ॥
साधयंति यत् महाथै आचरितानि च यत् महद्भिः। यच्च महांति ततः महाव्रतानि भवंति तानि ॥ २९४ ॥ अर्थ-जिसकारण महान् मोक्षरूप अर्थको सिद्ध करते हैं और महान् तीर्थकरादि पुरुषोंने जिनका पालन किया है सब पापयोगोंका त्याग होनेसे खतः ही पूज्य हैं इसलिये इनका नाम महाव्रत है ॥ २९४ ॥ . तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती। अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ॥२९५॥ तेषां चैव व्रतानां रक्षार्थ रात्रिभोजननिवृत्तिः। अष्टौ च प्रवचनमातरश्च भावनाश्च सर्वाः ॥ २९५ ॥
अर्थ-उन महाव्रतोंकी ही रक्षाके लिये रातमें भोजनका त्याग, समिति आदि आठ प्रवचन माता और पच्चीस भावना हैं ऐसा जानना ॥ २९५॥