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पंचाचाराधिकार ५। गुरूसे जैनग्रंथ एक भी नहीं पढा । मुझे तो अन्यमतके शास्त्रोंसे इतना ज्ञान हुआ है-इसतरह शास्त्र और गुरुका नाम छिपाना वह निह्नव दोष है उसे न कर शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये नहीं तो ज्ञानावरणकर्मका तीव्रबंध होगा ॥ २८४ ।। विजणसुद्धं सुत्तं अत्थविसुद्धं च तदुभयविसुद्धं । पयदेण य जप्पंतो णाणविसुद्धो हवइ एसो॥२८५॥
व्यंजनशुद्धं सूत्रं अर्थविशुद्धं च तदुभयविशुद्धं । प्रयत्नेन च जल्पन ज्ञानविशुद्धो भवति एषः ॥ २८५ ॥
अर्थ-जो सूत्रको अक्षरशुद्ध अर्थशुद्ध अथवा दोनोंकर शुद्ध सावधानीसे पढता पढाता है उसीके शुद्धज्ञान होता है ॥२८५॥
आगे विनयकरनेका फल दिखलाते हैं;विणएण सुदमधीदं जदिवि पमादेण होदि विस्सरिदं । तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहादि ॥ २८६ ॥ विनयेन श्रुतमधीतं यद्यपि प्रमादेन भवति विस्मृतं । तदुपतिष्ठते परभवे केवलज्ञानं च आवहति ॥ २८६ ॥
अर्थ-विनयसे पढा हुआ शास्त्र किसी समय प्रमादसे विस्मृत हो जाय (याद न रहे ) तौभी वह अन्यजन्ममें स्मरण ( याद ) आजाता है संस्कार रहता है और क्रमसे केवलज्ञानको प्राप्त कराता है ॥ २८६ ॥
आगे चारित्राचार कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं;णाणाचारो एसो णाणगुणसमण्णिदो मए वुत्तो। एत्तो चरणाचारं चरणगुणसमण्णिदं वोच्छं ॥ २८७॥
ज्ञानाचारः एषः ज्ञानगुणसमन्वितो मया उक्तः।