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मूलाचार
येन आत्मा विशुध्यते तत् ज्ञानं जिनशासने ॥ २६७॥
अर्थ-जिससे वस्तुका यथार्थ खरूप जान सकें, जिससे मनका व्यापार रुकजाय अर्थात् अपने वशमें चित्त हो, जिससे अपना जीव शुद्ध हो वही ज्ञान जैनमतमें उत्तम कहा गया है ॥ जेण रागा विरजेज जेण सेएसु रजदि । जेण मेत्ती पभावेज तं णाणं जिणसासणे ॥ २६८ ॥
येन रागात् विरज्यते येन श्रेयसि रज्यते । येन मैत्री प्रभावयेत् तत् ज्ञानं जिनशासने ॥ २६८ ॥
अर्थ-जिससे कामक्रोधादिरूप रागसे विरक्त ( परान्मुख ) हो, जिससे कल्याणरूप चारित्रमें रक्त हो, जिससे यह जीव सब प्राणियोंमें मित्रता करे वही जिनमतमें ज्ञान माना गया है ॥२६॥ काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। . वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥२६९॥
काले विनये उपधाने बहुमाने तथैव निह्नवने । व्यंजनमर्थस्तदुभयं ज्ञानाचारस्तु अष्टविधः ॥ २६९ ॥
अर्थ-खाध्यायका काल, मनवचनकायसे शास्त्रका विनय, यत्न करना, पूजासत्कारादिसे पाठादिक करना, अपने पढानेवाले गुरुका तथा पढे हुए शास्त्रका नाम प्रगट करना छिपाना नहीं, वर्णपदवाक्यकी शुद्धिसे पढना, अनेकांतखरूप अर्थकी शुद्धि, अर्थ सहित पाठादिककी शुद्धि होना । इसतरह ज्ञानाचारके आठ भेद हैं ॥ २६९॥
अब कालाचारको विस्तारसे कहते हैं;पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता।