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पंचाचाराधिकार ५।
१०१ पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणाहि ॥ २३५ ॥
पुण्यस्यास्रवभूता अनुकंपा शुद्ध एव उपयोगः । विपरीतः पापस्य तु आस्रवहेतुं विजानीहि ॥ २३५॥
अर्थ-जीवोंपर दया, शुद्ध मन वचन कायकी क्रिया शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्मके आस्रव ( आने ) के कारण हैं और इससे विपरीत निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण जानना ॥ २३५ ॥ ___ अमूर्तीकका मूर्तीकके साथ बंध कैसे हुआ उसका उत्तर कहते हैं
होउप्पिदगत्तस्स रेणुओ लग्गदे जधा अंगे। तह रागदोससिणिहोलिदस्स कम्मं मुणेयव्वं ॥२३६॥
स्नेहार्पितगात्रस्य रेणवो लगंति यथा अंगे। तथा रागद्वेषस्नेहालिप्तस्य कर्म ज्ञातव्यं ॥ २३६ ॥
अर्थ-जैसे घी आदि चिकनाईसे लिप्त शरीरको धूली चिपट जाती है वैसे ही रागद्वेषरूपी चिकनाईसे भीगे हुए जीवके ही कर्म पुद्गल बंधते हैं ॥ २३६ ॥ ___ अब आस्रवके भेद कहते हैं;मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति । अरिहंतवुत्तअत्थेसु विमोहो होइ मिच्छत्तं ॥ २३७ ॥ मिथ्यात्वं अविरमणं कषाययोगौ च आस्रवा भवंति । अहंदुक्तार्थेषु विमोहः भवति मिथ्यात्वं ॥ २३७ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व अविरति कषाय योग-ये आस्रव अर्थात्