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मूलाचारते पुण धम्माधम्मागासा य अरूविणो य तह कालो। खंधा देस पदेसा अणुत्ति विय पोग्गला रूवी॥२३२॥
ते पुनःधर्माधर्माकाशानि च अरूपीणि च तथा कालः। स्कंधः देशः प्रदेशः अणुरिति अपि च पुद्गला रूपिणः२३२
अर्थ-अरूपी अजीवद्रव्यके चार भेद हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल । स्कंध देश प्रदेश परमाणुरूप पुद्गलद्रव्य रूपी है॥ २३२॥ गदिठाणोग्गाहणकारणाणि कमसो दु वट्ठणगुणो य । रूवरसगंधफासादि कारणं कम्मबंधस्स ॥ २३३ ॥
गतिस्थानावगाहनकारणानि क्रमशः तु वर्तनागुणश्च । रूपरसगंधस्पर्शादि कारणं कर्मबंधस्य ॥ २३३ ॥
अर्थ-गमन करनेका, ठहरानेका, जगह देनेका निमित्त कारण धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य क्रमसे है। कालद्रव्यका वर्तना गुण है । और रूप रस गंध स्पर्शादिक कर्मबंधके कारण हैं ॥ २३३ ॥ सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहंगुणेहिं । जो परिणदो स पुण्णो तव्विवरीदेण पावं तु ॥२३४॥ - सम्यक्त्वेन श्रुतेन च विरत्या कषायनिग्रहगुणैः ।
यः परिणतस्तत्पुण्यं तद्विपरीतेन पापं तु ॥ २३४ ॥
अर्थ-सम्यक्त्वसे, श्रुतज्ञानसे, पांच व्रतरूपपरिणामसे, कषायनिरोधरूप उत्तम क्षमादिगुणोंकर परिणत हुए जीवके जो कर्मबंध है वह पुण्य है और उससे उल्टा अर्थात् मिथ्यात्वादिसे परिणतके कर्मबंध है वह पाप है ॥ २३४ ॥