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पंचाचाराधिकार ५। मिच्छत्ताविरदीहिं य कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि॥२४१॥
मिथ्यात्वाविरतिभिश्च कषाययोगैश्च यच आस्रवति । दर्शनविरमणनिग्रहनिरोधनैस्तु नास्रवति ॥ २४१ ॥
अर्थ-मिथ्यात्व अविरति कषाय योगोंसे जो कर्म आते हैं वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति क्षमादिभाव और योगनिरोधसे नहीं आने पाते-रुकजाते हैं ॥ २४१ ॥ ___ आगे निर्जराको कहते हैं;-. संजमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्टदे अणेगविधं । सो कम्मणिजराए विउलाए वदे जीवो ॥ २४२॥ संयमयोगेन युक्तः यः तपसा चेष्टते अनेकविधं ।
स कर्मनिर्जरायां विपुलायां वर्तते जीवः ॥ २४२ ॥ __ अर्थ-इंद्रियादिसंयम और योगकर सहित हुआ जो अनेक ( बारह ) भेद रूप तपमें प्रवर्तता है वह जीव बहुतसे कर्मोंकी निर्जरा करता है ॥ २४२ ॥
आगे दृष्टांतसे जीवकी शुद्धता वतलाते हैं;जह धाऊ धम्मंतो सुज्झदि सो अग्गिणो दु संतत्तो। तवसा तधा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणयं वा२४३
यथा धातुः धम्यमानः शुध्यति स अग्निना तु संतप्तः । तपसा तथा विशुध्यति जीवः कर्मभिः कनकं इव।।२४३॥
अर्थ-जैसे मलसहित सोना धातु अग्निसे तपायागया ताड़नादि किया गया शुद्ध होजाता है उसीतरह यह जीव भी तपसे तपाया हुआ कर्मरूपी मैलसे रहित हुआ शुद्ध होजाता है॥२४३॥