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मूलाचारजोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागं कसायदोकुणदि। अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधहिदिकारणं णत्थि ॥२४४॥ योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः करोति । अपरिणतोच्छिन्नेषु च बंधस्थितिकारणं नास्ति ॥२४४ ॥
अर्थ-योगसे प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होते हैं तथा कषायसे स्थिति और अनुभागबंध होते हैं, यह ग्यारवें गुणस्थान तक जानना । सयोगीगुणस्थान और क्षीणकषाय गुणस्थानवालोंके बंध स्थितिका कारण नहीं है-कुछ कर नहीं सकता ।। २४४ ॥ पुव्वकदकम्मसडणं तु णिजरा सा पुणो हवे दुविहा । पढमा विवागजादा बिदिया अविवागजादा य॥२४५॥
पूर्वकृतकर्मसडनं तु निर्जरा सा पुनः भवेत् द्विविधा । प्रथमा विपाकजाता द्वितीया अविपाकजाता च ॥ २४५॥
अर्थ-पूर्व ( पहले ) किये हुए कर्मों का जो झड़जाना वह निर्जरा है उसके दो भेद हैं । पहली विपाकजा दूसरी अविपाकजा ॥ २४५ ॥ कालेण उवाएण य पचंति जधा वणप्फदिफलाणि । तध कालेण उवाएण य पचंति कदा कम्मा ॥ २४६ ॥ कालेन उपायेन च पच्यते यथा वनस्पतिफलानि । तथा कालेन उपायेन च पच्यते कृतानि कर्माणि ॥२४६॥
अर्थ-जैसे गेंहू आदि वनस्पतिके फल अपने अपने समयसे तथा उपायकर आम्रादिफल जल्दी पकजाते हैं उसीतरह किये हुए कर्म अपने २ समयपर अथवा तप आदिक उपायके प्रभावसे शीघ्र ही फल देकर झड़जाते हैं ॥ २४६ ॥