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संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार ३ |
इसलिये समाधि मरणकर इस शरीरका त्याग कहते हैं:
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करना ऐसा
णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं । जम्मणमरणादकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो ॥ ११९ ॥ नास्ति भयं मरणसमं जन्मसमं न विद्यते दुःखं । जन्ममरणातकं छिंधि ममत्वं शरीरतः ॥ ११९ ॥
अर्थ - इस जीवके मृत्युके समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्मके समान कोई दुःख नहीं है इसलिये जन्ममरणरूप महान् रोगको छेद डाल । उस रोगका मूलकारण शरीर में ममता करना है। इसलिये संन्यासविधिकर ममता छोड़ने से जन्ममरणरूप महान रोग मिट जाता है ॥ ११९ ॥
आगे आराधना में कहे हुए तीन प्रतिक्रमण इस संक्षेपकाल में ही संभवते हैं ऐसा कहते हैं ;
पढमं सव्वदिचारं बिदियं तिविहं हवे पडिक्कमणं । पाणस्स परिच्चयणं जावज्जीवुत्तमहं च ॥ १२० ॥ प्रथमं सर्वातिचारं द्वितीयं त्रिविधं भवेत् प्रतिक्रमणं । पानस्य परित्यजनं यावज्जीवमुत्तमार्थं च ॥ १२० ॥
अर्थ - पहला तो सर्वातीचार प्रतिक्रमण है अर्थात् दीक्षाग्रहणसे लेकर सब तपश्चरणके कालतक जो दोष लगे हों उनकी शुद्धि करना, दूसरा त्रिविध प्रतिक्रमण है वह जलके बिना तीनप्रकारके आहारका त्याग करनेमें जो अतीचार लगे थे उनका शोधन करना और तीसरा उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है उसमें जीवन -