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समाचाराधिकार ४।
इत्यादिक जिस स्थानमें रहनेसे वढे उत्कृष्ट हों उस क्षेत्रमें रहना वह क्षेत्रोपसंपत् है ॥ १४१ ॥
आगे मार्गोपसंपत्को कहते हैं;-. पाहुणवत्थवाणं अण्णोण्णागमणगमणसुहपुच्छा। उपसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं १४२ पादोष्णवास्तव्यानामन्योन्यागमनगमनसुखप्रश्नः । उपसंपत् च मार्गे संयमतपोज्ञानयोगयुक्तानाम् ॥ १४२ ॥
अर्थ-अन्य संघके आये हुए मुनि तथा अपने स्थानमें रहनेवाले मुनियोंसे आपसमें आने जानेके विषयमें कुशलका पूछना कि ' आनंदसे आये व सुखसे पहुंचे ' इसतरह पूछना वह संयमतपज्ञानयोग-गुणोंकर सहित मुनिराजोंके मार्गोपसंपत् होता है ॥ १४२ ॥
आगे सुखदुःखोपसंपत्को कहते हैं;सुहदुक्खे उवयारो वसहीआहारभेसजादीहिं। तुझं अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया ॥ १४३ ॥
सुखदुःखयोः उपचारो वसतिआहारभेषजादिभिः । युष्माकं अहं इति वचनं सुखदुःखोपसंपत् ज्ञेया ॥१४३॥
अर्थ—सुख दुःख युक्त पुरुषोंको वसतिका आहार औषधि आदिकर उपकार ( सुखी ) करना अर्थात् शिष्यादिका लाभ होनेपर कमंडलु आदि देना व्याधिकर पीडित हुए को सुखरूप सोनेका स्थान बैठनेका स्थान बताना, औषध अन्नपान मिलनेका प्रकार बताना अंग मलना तथा मैं आपका हूं आप आज्ञा करें
५ मूला.