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मूलाचार
अनुष्ठान करता है । साथ रहता है । इन
एक विहारी देशांतर में जाकर चारित्रका दूसरा अगृहीतार्थ है वह जानकर मुनिके दोनोंसे अन्य तीसरा विहार जिनेंद्रदेवने नहीं कहा है ॥ १४८ ॥ आगे एक विहारीका स्वरूप कहते हैं; --
तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य । पविआआगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो ॥ १४९ ॥ तपःसूत्रसच्वैकत्वभावसंहननधृतिसमग्रश्च ।
प्रव्रज्यागमबली एकविहारी अनुज्ञातः ।। १४९ ॥
अर्थ-तप आगम शरीरबल, अपने आत्मामें ही प्रेम, शुभ परिणाम, उत्तम संहनन और मनका बल क्षुधा आदि न होना- इन गुणोंकर संयुक्त हो तथा तपकर व आचार सिद्धांतोंकर बलवान् हो अर्थात् चतुर हो वह एक विहारी साधु कहा गया है ॥ १४९ ॥
परंतु एकविहारी ऐसा न हो. यह कहते हैं;
सच्छंद्गदागद्सयणणिसियणादाणभिक्खवोसरणे । सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी ॥ १५० ॥ स्वच्छंदगतागतिशयननिषीदनादानभिक्षाव्युत्सर्गाः स्वच्छंदजल्परुचिश्च मा मे शत्रुरप्येकाकी ।। १५० ।।
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अर्थ- सोना बैठना ग्रहण करना भोजन लेना मलत्याग करना इत्यादि कार्योंके समय जिसका खच्छंद गमन आगमन है तथा स्वेच्छासे ही विना अवसर बोलने में प्रेम रखनेवाला ऐसा एकाकी ( अकेला ) मेरा वैरी भी न हो । भावार्थ - ऐसा स्वच्छंदी मुनि एकाकी कदापि नहीं हो सकता ॥ १५० ॥