________________
मूलाचारअब आचार्यके गुणोंको कहते हैंसंगहणुग्गहकुसलो सत्तत्थविसारओ पहियकित्ती। 'किरिआचरणसुजुत्तो गाहुयआदेजवयणो य॥१५८॥
संग्रहानुग्रहकुशलः सूत्रार्थविशारदः प्रथितकीर्तिः । क्रियाचरणसुयुक्तो ग्राह्यादेयवचनश्च ॥ १५८ ॥
अर्थ-दीक्षादेकर अपना करनारूप संग्रह व शास्त्रादिसे संस्काररूप अनुग्रह इन दोनोंमें चतुर हो, सिद्धांतके अर्थ जानने में अतिप्रवीण हो, जिसकी कीर्ति ( गुण ) सब जगह फैल रही हो, पंच नमस्कार छह आवश्यक आसिका निषेधिका रूप तेरहक्रिया तथा महाव्रतादि तेरहप्रकार चारित्रकर युक्त हो और जिसका वचन सुनने मात्र ही सब ग्रहण करें-ऐसे गुणोंवाला आचार्य कहा है ॥ १५८ ॥ गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पभावणासीलो। खिदिससिसायरसरिसो कमेण तं सो दु संपत्तो१५९
गंभीरो दुर्धर्षः शूरः धर्मप्रभावनाशीलः। क्षितिशशिसागरसदृशः क्रमेण तं स तु संप्राप्तः ॥१५९ ॥
अर्थ-जो क्षोभरहित अथाह गुणोंवाला हो, जिसका अनादर परवादी न करसकें, कार्य करने में समर्थ हो, दानतपादिके अतिशयसे धर्म प्रभावना करनेवाला हो, क्षमा शांति निर्मलपनेसे पृथ्वीचंद्रमासमुद्रकोंके समान हो-ऐसे गुणोंवाले आचार्यके पास शिष्य जावे ।। १५९ ॥ • आगे आये हुए शिष्यमुनिको देखकर दूसरे संघके क्या करें यह कहते हैं