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पंचाचाराधिकार ५। अर्थ-दर्शनाचारकी निर्मलता जिनेंद्रभगवानने अष्टप्रकारकी कही है वह सम्यक्त्वके मल (अतीचार ) को दूर करनेवाली है। उसे मैं कहता हूं सो हे शिष्यजनो ! एकचित्त होकर तुम सुनो ॥ २०० ॥ णिस्संकिद णिकंखिद णिविदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ट२०१ निःशंकिता निष्कांक्षिता निर्विचिकित्सता अमूढदृष्टिः च । उपगृहनं स्थितिकरणं वात्सल्यं प्रभावना च एते अष्टौ२०१
अर्थ-निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्वके गुण जानना ॥ २०१॥ मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥ २०२॥
मार्गः मार्गफलं इति च द्विविधं जिनशासने समाख्यातं । मार्गः खलु सम्यक्त्वं मार्गफलं भवति निर्वाणं ॥ २०२॥
अर्थ-जिनशासनमें मार्ग और मार्गफल ये दो कहे हैं। उनमेंसे मार्ग तो सम्यक्त्व है और मार्गफल मोक्ष है ॥ २०२॥ __ आगे सम्यक्त्वका खरूप कहते हैं;भूयत्थेणाहिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिजरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ २०३ ॥ भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च । “ आस्रवसंवरनिर्जराबंधो मोक्षश्च सम्यक्त्वं ॥ २०३ ॥ अर्थ-अपने अपने खरूपसे जानेगये जीव अजीव पुण्य पाप