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समाचाराधिकार ४ । विधानकर ही आचार्योंसे आचरणकी शुद्धता करे और आचार्योंसे यत्नाचारपूर्वक सूत्रार्थ सीखे ॥ १६९॥
आगे यत्नाचार कैसे करे यह कहते हैंपडिलेहिऊण सम्मं दव्वं खेत्तं च कालभावे य । विणवोवयारजुत्तेणज्झेदव्वं पयत्तेण ॥ १७०॥ प्रत्यालेख्य सम्यक् द्रव्यं क्षेत्रं च कालभावौ च । विनयोपचारयुक्तेनाध्येतव्यं प्रयत्नेन ॥ १७० ॥
अर्थ-शरीरमें होनेवाले गूंमडे घाव तथा भूमिगत चर्म हड्डी मूत्र पुरीष आदिको पीछी आदिसे शोधन करना द्रव्य शुद्धि है। भूमिको सौ हाथमात्र सोधना क्षेत्रशुद्धि है । संध्याका मेघगर्जनका बिजली चमकनेका अन्य उत्पातादिका काल छोड़ना कालशुद्धि है। क्रोधादि छोड़ना भावशुद्धि है । इसप्रकार द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारोंकी शुद्धिको अच्छीतरह देख विनय उपचारकर सहित होके यत्नाचारकर वह मुनि अध्ययन करे ( पढे ) ॥ १७० ॥
जो द्रव्यादिकी शुद्धि न करे तो क्या हो यह कहते हैंदव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण । असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च ॥ १७१॥ द्रव्यादिव्यतिक्रमणं करोति सूत्रार्थशिक्षालोभेन । असमाधिरस्वाध्यायः कलहो व्याधिः वियोगश्च ॥ १७१ ॥
अर्थ-जो वह आगंतुक मुनि सूत्र अर्थके सीखनेके लोभसे (आसक्ततासे) द्रव्यादिकी शुद्धताका उल्लंघन करे अर्थात् शास्त्रका अविनय करे तो असमाधि अखाध्याय कलह रोग वियोग-ये दोष होते हैं ॥ १७१ ॥