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मूलाचार
यदि आत्माके गुणोंका नाश न करे परंतु निंदाको अवश्य पाता है;
कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा । अचिरेणल्लियमाणो अववादं तत्थ पप्पादि ॥ १८२ ॥ कन्यां विधवां आंतःपुरिकां तथा खैरिणीं सलिंगिनीं वा । अचिरेणालाप्यमानः अपवादं तत्र प्राप्रोति ।। १८२ ॥ अर्थ – कन्या, विधवा, रानी वा विलासिनी, स्वेच्छाचारिणी, दीक्षा धारण करनेवाली ऐसी स्त्रियोंसे क्षणमात्र भी वार्तालाप करता हुआ मुनिराज है वह लोकनिंदाको पाता है ॥ १८२ ॥
आर्याओंकी संगति छोड़नेसे उनके प्रतिक्रमणादि कैसे होसकते हैं उसे कहते हैं; -
पियधम्मो ददधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो । संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो ॥ १८३ ॥ प्रियधर्मा धर्मा संविग्नः अवद्यभीरुः परिशुद्धः । संग्रहानुग्रहकुशलः सततं साररक्षणायुक्तः ॥ १८३ ॥ अर्थ – आर्यकाओंका गणधर ऐसा होना चाहिये कि, उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हो, दृढ धर्मवाला हो, धर्ममें हर्ष करनेवाला हो पापसे डरता हो, सबतरह से शुद्ध हो अर्थात् अखंडित आचरणवाला हो, दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका पालन करनेमें चतुर हो और हमेशा शुभक्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो ॥ १८३ ॥
गंभीरो बुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपव्वs गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि ॥ १८४॥