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मूलाचारगौरविको गृद्धिको मायावी अलसलुब्धनिर्धर्मः। गच्छेपि संवसन् नेच्छति संघाटकं मंदः ॥ १५३ ॥
अर्थ-जो मुनि शिथिलाचारी है वह रिद्धि आदि गौरववाला, भोगोंकी इच्छा करनेवाला, कुटिल खभावी, उद्यम रहित, लोभी, पापबुद्धि हुआ मुनिसमूहमें रहकर भी दूसरेको नहीं चाहता । तीन पुरुषोंके समूहको गण तथा सात पुरुषोंके समूहको गच्छ जानना ॥ १५३ ॥
आगे खच्छंदीके अन्य भी पापस्थान वतलाते हैं;आणा अणवत्था विय मिच्छत्ताराहणादणासो य । संजमविराहणावि य एदे दुणिकाइया ठाणा ॥१५४॥
आज्ञाकोपः अनवस्थापि च मिथ्यात्वाराधनात्मनाशश्च । संयमविराधनापि च एते तु णिकाचितानि स्थानानि॥१५४
अर्थ-जो एकाकी खच्छंद विहार करता है उसके आज्ञाकोप, अतिप्रसंग, मिथ्यात्वकी आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादिगुणोंका वा कार्यका घात, संयमका घात-ये पांच पापस्थान अवश्य होते हैं ॥ १५४ ॥
आगे कहते हैं कि जहां आधारभूत आचार्यादि न हों वहां न ठहरे;तत्व ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच आधारा। आइरियउवज्झाया पवत्तथेरा गणधरा य ॥ १५५ ॥ तत्र न कल्पते वासः यत्रेमे न संति पंच आधाराः । आचार्योपाध्यायाः प्रवर्तकस्थविराः गणधराश्च ॥ १५५ ॥ अर्थ-ऐसे गुरुकुलमें रहना ठीक नहीं है कि जहां आचार्य,