________________
मूलाचारवह करूं मेरे पुस्तक शिष्यादि आपके ही हैं ऐसा वचन कहना वह सुखदुःखोपसंपत् है ॥ १४३ ॥ ___ आगे सूत्रोपसंपत्का स्वरूप कहते हैंउवसंपया य मुत्ते तिविहा सुत्तत्थतदुभया चेव । एकेका वि य तिविहा लोइय वेदे तहा समये ॥१४४॥
उपसंपत् च सूत्रे त्रिविधा सूत्रार्थतदुभया चैव । एकैकापि च त्रिविधा लौकिके वेदे तथा समये ॥१४४॥
अर्थ-सूत्रोपसंपत्के तीन भेद हैं सूत्र अर्थ तदुभय । सूत्रके लिये यत्नकरना सूत्रोपसंपत् , अर्थके लिये यत्न अर्थोपसंपत् , दोनोंके लिये यत्नकरना वह सूत्रार्थोपसंपत् है । वह एक एक भी तीन तरह है-लौकिक वैदिक सामायिक । इसप्रकार नौ भेद हैं । व्याकरण गणित आदि लौकिक शास्त्र हैं, सिद्धांत शास्त्र वैदिक कहे जाते हैं, स्याद्वादन्यायशास्त्र व अध्यात्मशास्त्र सामायिक शास्त्र जानना ॥ १४४ ॥ ___ आगे पदविभागिक समाचारको कहते हैं;कोई सव्वसमत्थो सगुरुसुदं सव्व आगमित्ताण । विणएणुवक्कमित्ता पुच्छइ सगुरुं पयत्तेण ॥१४५॥
कश्चित् सर्वसमर्थः स्वगुरुश्रुतं सर्वमवगम्य । विनयेनोपक्रम्य पृच्छति स्वगुरुं प्रयत्नेन ॥ १४५॥
अर्थ-वीर्य धैर्य विद्याबल उत्साह आदिसे समर्थ कोई मुनिराज अपने गुरुसे सीखे हुए सब शास्त्रोंको जानकर मनवचनकायसे विनय सहित प्रणाम करके प्रमादरहित हुआ पूछे-आज्ञा मागे वह पदविभागिक समाचार है ॥ १४५॥