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संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार ३ । हूं । बाह्य आभ्यंतर दो प्रकारके परिग्रहको तथा मन वचन कायकी पापक्रियाओंको छोडता हूं ॥ ११३ ॥
आगे उत्तमार्थ त्यागको कहते हैंजो कोइ मज्झ उवधी सम्भंतरबाहिरो य हवे । आहारं च सरीरं जावाजीवं य वोसरे ॥११४॥ यः कश्चित् मम उपधिः साभ्यंतरबाह्यश्च भवेत् ॥ आहारं च शरीरं यावज्जीवं च व्युत्सृजामि ॥ ११४ ॥
अर्थ-जो कुछ मेरे आभ्यंतर बाह्य परिग्रह है उसे तथा चारों प्रकारके आहारोंको और अपने शरीरको जबतक जीवन है तबतक छोड़ता हूं । यही उत्तमार्थ त्याग है ॥ ११४ ॥
आगे आगमकी महिमा देखकर जिसको हर्ष हुआ है ऐसा क्षपक इसप्रकार नमस्कार करता है;जम्हिय लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं । तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिणसासणं सुइरं ॥११५॥
यस्मिन् लीना जीवाः तरंति संसारसागरं अनंतं । तत् सर्वजीवशरणं नंदतु जिनशासनं सुचिरं ॥ ११५ ॥
अर्थ-जिस जिनशास्त्रमें लीन हुए जीव अपार पंचपरावर्तनरूपसंसार-समुद्रको तर जाते हैं ऐसा सब जीवों का सहायक केवलीश्रुतकेवलीकथित आगम सबकाल वृद्धिको प्राप्त होवो ॥ भावार्थ-जिसके अनुष्ठानसे भोग और मुक्ति मिले वही नमस्कार करने योग्य होता है ॥ ११५ ॥ ___ आगे आराधनाके फलके लिये कहते हैंजा गदी अरिहंताणं णिहिट्ठाण जा गदी।