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मूलाचारजा गदी वीदमोहाणं सामे भवदु सव्वदा ॥ ११६ ॥ या गतिः अर्हतां निष्ठितार्थानां या गतिः । या गतिः वीतमोहानां सा मे भवतु सर्वदा॥११६ ॥ अर्थ-जो अरहंतोंकी गति है, जो सिद्धोंकी गति है, जो वीतरागछद्मस्थोंकी गति है वही गति सर्वदा ( हमेशा ) मेरी भी हो । यही आराधनाका फल चाहता हूं अन्य नहीं ॥ ११६ ॥ __आगे उत्तमार्थ त्यागका फल कहते हैं;एगं पंडियमरणं छिंददि जादीसदाणि बहुगाणि । तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि ॥ ११७ ।।
एकं पंडितमरणं छिनत्ति जातिशतानि बहूनि । तन्मरणेन मर्तव्यं येन मृतं सुमृतं भवति ॥ ११७॥
अर्थ-एक भी पंडितमरण सैकडों जन्मोंका छेदनेवाला है, इसलिये ऐसा मरण करना चाहिये जिससे कि मरना अच्छा मरण कहलावे अर्थात् फिर जन्म नहीं धारण करना पडे ॥११७॥ - आगे मरणकालमें समाधिधारणका फल कहते हैं;एगम्हिय भवगहणे समाहिमरणं लहिज जदि जीवो। सत्तभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि ॥ १९८॥ एकसिन् भवग्रहणे समाधिमरणं लभते यदि जीवः । सप्ताष्टभवग्रहणे निर्वाणमनुत्तरं लभते ॥ ११८ ॥
अर्थ-जो यह जीव एक ही पर्यायमें संन्यास मरणको प्राप्त हो जाय तो सात आठ पर्यायें वीत जानेपर अवश्य मोक्षको पाता है ॥ ११८ ॥ यहां भावलिंगीकेलिये ही कहागया है।
आगे शरीरके होनेसे ही जन्ममरणादि दुःख होते हैं