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मूलाचारसव्वं चेय ममत्तिं जहामि सव्वं खमावेमि ॥ १११॥ सर्व आहारविधिं संज्ञा आशाः कषायाश्च । सर्व चैव ममत्वं त्यजामि सर्व क्षमयामि ॥ १११ ॥
अर्थ-मैं सब अन्नपानादि आहारकी विधिको, आहारादिवांछाओंको, इसलोक परलोककी सब वांछाओंको, क्रोध आदि कषायोंको, और सब चेतन अचेतन बाह्यपरिग्रहमें ममताको छोडता हूं । इसतरह परिणामोंको शुद्ध करना चाहिये ॥१११॥ एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं । एदं पचक्खाणं णित्थिपणे पारणा होजं ॥ ११२ ॥
एतस्मिन् देशकाले उपक्रमो जीवितस्य यदि मम । एतत् प्रत्याख्यानं निस्तीर्णे पारणा भवेत् ॥ ११२ ॥
अर्थ-जीवितमें संदेह होनेकी अवस्थामें ऐसा विचार करे कि इस देशमें इस काल में मेरा जीनेका सद्भाव ( अस्तित्व ) रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जबतक उपसर्ग रहेगा तबतक आहारादिका त्याग है उपसर्ग दूर होनेके वाद यदि जीवित रहा तो फिर पारणा ( भोजन ) करूंगा ॥ ११२ ॥ __ जहां निश्चय होजाय कि इस उपसर्गादिमें मैं नहीं जीसकूँगा वहां ऐसा त्याग करे;सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामी य पाणयं वज । उवहिं च वोसरामिय दुविहं तिविहेण सावजं॥११३॥
सर्व आहारविधि प्रत्याख्यामि च पानकं वर्जयित्वा । उपधिं च व्युत्सृजामि द्विविधं त्रिविधेन सावद्यम् ॥११३॥ अर्थ-मैं जलको छोड़ सब (तीन) तरहके आहारोंको त्यागता