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समाचाराधिकार ४ । इष्टे इच्छाकारो मिथ्याकारः तथैव अपराधे । प्रतिश्रवणे तथेति च निर्गमने आसिका भणिता ॥१२६ ॥ प्रविशति च निषेधिका आपृच्छनीयं स्वकार्यारंभे । सधर्मणा च गुरुणा पूर्वनिसृष्टे प्रतिपृच्छा ॥ १२७ ॥ छंदनं गृहीते द्रव्ये अगृहीतद्रव्ये निमंत्रणा भणिता । युष्माकं अहमिति गुरुकुले आत्मनिसर्गस्तु उपसंपत् ॥१२८
अर्थ-सम्यग्दर्शनादि शुद्धपरिणाम वा व्रतादिक शुभपरिणामोंमें हर्ष होना अपनी इच्छासे प्रवर्तना वह इच्छाकार है । व्रतादिमें अतीचार होनेरूप अशुभ परिणामोंमें काय वचन मनकी निवृत्ति करना मिथ्याशब्द कहना वह मिथ्याकार है । सूत्रके अर्थ ग्रहण करनेमें जैसा आप्तने कहा है वैसे ही है इसप्रकार प्रीतिसहित 'तथेति' कहना वह तथाकार है। रहनेकी जगहसे निकलते समय देवता गृहस्थ आदिसे पूछकर गमन करना अथवा पापकियादिकसे मनको रोकना वह आसिका है । नवीन स्थानमें प्रवेश करते ( घुसते ) समय वहांके रहनेवालोंको पूछकर प्रवेश करना अथवा सम्यग्दर्शनादिमें स्थिरभाव वह निषेधिका है। अपने पठनादि कार्यके आरंभ करने में गुरु आदिकको वंदनापूर्वक प्रश्न करना वह आपृच्छा है । समान धर्मवाले साधर्मी तथा दीक्षागुरु आदि गुरु इन दोनोंसे पहले दिये हुए पुस्तकादि उपकरणोंको फिर लेनेके अभिप्रायसे पूछना वह प्रतिपृच्छा है । ग्रहण किये पुस्तकादि उपकर्णों को देनेवालेके अमिप्रायके अनुकूल रखना वह छंदन है । तथा नहीं लिये हुए अन्य द्रव्यको प्रयोजनके लिये सत्कार पूर्वक याचना अथवा विनयसे रखना वह निमंत्रणा है ।