________________
बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। १९ प्रत्याख्यानको करता है वह मोक्षस्थानको प्राप्त होता है। आराधनाका फल निर्वाण है यह तात्पर्य जानना ॥ १०५॥
आगे अंतमंगलपूर्वक प्रार्थना करते हैंवीरो जरमरणरिवू वीरो विण्णाणणाणसंपण्णो। लोगस्सुज्जोयपरो जिणवरचंदो दिसदु बोधिं ॥१०॥ वीरो जरामरणरिपुः वीरो विज्ञानज्ञानसंपन्नः । लोकस्य उद्योतकरो जिनवरचंद्रो दिशतु बोधिम् ॥१०६॥
अर्थ-बुढापा तथा मरणका शत्रु (दूर करनेवाला), विशेष लक्ष्मीका देनेवाला, चारित्र और ज्ञानकर सहित, भव्यजीवोंके मिथ्यात्व अंधकारको मिटाके ज्ञानरूप प्रकाशका करनेवाला और सामान्य केवलियोंमें प्रधान चंद्रमाके समान आनंद करनेवाला ऐसा महावीर प्रभु चौवीसवां तीर्थंकर हमें समाधिकी प्राप्ति करावे । इस प्रकार अंतमंगलकर क्षपकको समाधिकी प्राप्तिके कारण महावीर स्वामीका स्मरण दिखलाया ॥ १०६॥ __ आगे निदान नहीं करना और ऐसा भाव करना यह कहते हैंजा गदी अरिहंताणं णिढिदट्ठाण जा गदी। जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥१०७॥ या गतिः अर्हतां निष्ठितार्थानां या गतिः। या गतिः वीतमोहानां सा मे भवतु शश्वत् ॥ १०७॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि मैं ऐसी याचना करता हूं कि जो गति अहंतोंकी है, जो कृतकृत्य सिद्ध परमेष्ठियोंकी है और जो गति क्षीणकषाय छद्मस्थ ( अल्पज्ञानी) वीतरागोंकी है वही
४ मूला.