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मूलाचारहत्वा रागद्वेषौ छित्वा च अष्टकर्मशंखलां । जन्ममरणारहट्ट भित्वा भवेभ्यो मोक्ष्यसे ॥९० ॥
अर्थ-प्रीति अप्रीतिको नष्टकर ज्ञानावरणादि आठकर्मरूपी सांकलको छेदकर जन्ममरणरूपी अहंट घंटीयंत्रको भेदकर तू संसारसे छूट जायगा । इस संन्यासमरणका यही फल जानना९०॥
ऐसे आचार्योंका उपदेश सुनकर क्षपक विचारता है;सव्वमिदं उवदेसं जिणदिदं सद्दहामि तिविहेण । तसथावरखेमकरं सारं णिव्वाणमग्गस्स ॥ ९१ ॥
सर्वमिमं उपदेशं जिनदृष्टं श्रद्दधे त्रिविधेन । त्रसस्थावरक्षेमकरं सारं निर्वाणमार्गस्य ॥ ९१ ॥
अर्थ-क्षपक कहता है कि सब यह उपदेश भगवान भाषित आगम है उसका मनवचनकायसे श्रद्धान (रुचि) करता हूं । वह आगम, दो इंद्रिय आदि पंच इंद्रियपर्यंत त्रस जीव तथा एकेंद्रिय आदि स्थावर जीव सबके कल्याणका करनेवाला है तथा मोक्षमार्गका सारभूत है । इसी आगमसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है ॥ ९१ ॥ __ जैसे उस समय द्वादशांगका श्रद्धान किया जाता है उसतरह समस्त श्रुतका चितवन नहीं किया जासकता ऐसा कहते हैंण हि तम्मि देसयाले सको बारसविहो सुदक्खंधो। सव्वो अणुचितेदं बलिणावि समत्थचित्तेण ॥ ९२॥
नहि तस्मिन् देशकाले शक्यः द्वादशविधः श्रुतस्कंधः। सर्वः अनुचिंतयितुं बलिना अपि समर्थचित्तेन ॥ ९२ ॥ अर्थ-हे क्षपक ! शरीरके परित्यागके समय बारह प्रकारका