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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। ४३ संपूर्ण श्रुतस्कंध, शरीरबल मनोबल धारण करनेवाले यतियोंसे. भी चितवन नहीं किया जासकता अर्थात् न तो अर्थका विचार बनसकता है और न पाठ ही होसकता है ॥ ९२ ॥ ___ आगे कहते हैं कि ऐसा है तो क्या करना;एक्कमि बिदियह्मि पदे संवेगो वीयरागमग्गम्मि । वजदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्वं ॥९३ ॥
एकस्मिन् द्वितीये पदे संवेगो वीतरागमार्गे।। व्रजति नरो अभीक्ष्णं तत् मरणांते न मोक्तव्यं ॥ ९३ ॥
अर्थ-हे क्षपक ! जो सर्वज्ञकथित आगमके 'नमोहद्भवः' ऐसे एक पदमें तथा 'नमः सिद्धेभ्यः' ऐसा दूसरा पद अथवा अर्थपद ग्रंथपद प्रमाणपद पंचनमस्कारपद अथवा एक बीजपदमें भी जो संवेग (हर्ष) करता है वह उत्तमगति पाता है इस. लिये कंठगत प्राण होनेपर भी पदका ध्यान नहीं छोडना चाहिये ॥ ९३ ॥
आगे पदके नहीं छोडनेका कारण बतलाते हैं;एदलादो एकं हि सिलोगं मरणदेसयालमि । आराहणउवजुत्तो चिंतंतो राधओ होदि ॥ ९४॥ एतस्मात् एकं हि श्लोकं मरणदेशकाले । आराधनोपयुक्तः चिंतयन् आराधको भवति ॥ ९४ ॥
अर्थ-हे क्षपक ! जो इस श्रुतस्कंधसे अथवा पंचनमस्कारमंत्रसे एक भी श्लोक ( पद) लेकर मरणके समय सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं सहित चितवन करता है वह आराधक रत्न